पाप से मुक्ति

ईश्वर की योजना के अनुसार शुद्धता और पवित्रता में जीवन जीना।

पवित्र होने का क्या अर्थ हैं? क्या हम अपने-आप से या फिर दूसरों से पवित्रता में जीने की उम्मीद रख सकते हैं? क्या पापों से मुक्ति संभव हैं? बाईबल इसके बारे में क्या बताती हैं?

परन्तु जैसे तुम्हारा बुलाने वाला पवित्र है, वैसे ही तुम भी समस्त आचरण में पवित्र बनो, क्योकि यह लिखा है, “तुम पवित्र बनो, क्योकि मैं पवित्र हूँ ।” (पतरस 1:15–16)

नए नियम के लेखक कभी-कभी मसीही लोगों को पवित्र और प्रिय, इस तरह संबोधित करते है। (उदा: कुलुस्सियों 3:12) आज के युग में हमारे कानों को ‘पवित्र’ या संत ऐसे शब्द सुनने में अजीब, पुरानी सोच वाली, रोज़-मर्रा की ज़िन्दगी से दूर लगती हैं; जो या तो पहुँच से बहार हो या सिर्फ़ कुछ विशेष लोगों के लिये ही हो। 

क्या यह बात सच है? क्या बाईबल यह नहीं बताती की पवित्र जीवन और ईश्वर के साथ रिश्ता, दोनों बहुत करीब से जुडी हुई बातें हैं, जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता?

वह समाचार जो हमने उस से सुना है और तुमको सुनाते है, वह यह है, कि परमेश्वर ज्योति है और उसमे कुछ भी अंधकार नहीं यदि हम कहें कि उसके साथ हमारी सहभागिता है फिर भी अंधकार में चलें, तो हम झूठ बोलते है और सत्य पर आचरण नहीं करते; परन्तु यदि हम ज्योति में चलें जैसा वह स्वयं ज्योति में है, तो हमारी सहभागिता एक दूसरे से है, और उसके पुत्र यीशु का लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। (यूहन्ना 1:5–7)

ईश्वर ने हमें जो पवित्र होने की आज्ञा दी है, यह हमें सचमुच अनन्त-काल के लिए तैयार करती है। इसके बिना हम अतिपवित्र ईश्वर से न तो अब और न आने वाले युग में संगति रख पाएंगे। पवित्रता कोई परीक्षा के समान नहीं है, जिससे हम स्वर्ग में प्रवेश कर पाए; कोई ऐसी परीक्षा, जो यदि ईश्वर चाहते तो बदल देते। दरअसल पवित्रता, ईश्वर और हमारे स्वभाव से गहराई से जुड़ी हुई बात है।

ऊपर दिए गये वचन, ईश्वर की संपूर्ण पवित्रता पर ज़ोर देते हुए हमें बताती हैं कि ये कितना ज़रूरी हैं कि हमारा जीवन भी ईश्वर के द्वारा शुद्ध किया जाए। ये वचन बताते है कि हमें अपने हर पाप को छोड़ना अत्यावशयक है। जैसे ईश्वर पवित्र है, वैसे ही हमें भी पवित्र होना चाहिए। यह मनोभाव एक मसीही के चरित्र को दर्शाता है। कई धार्मिक “मसीही” लोग इस उद्देश्य के लिये प्रयास ही नहीं करते। फिर भी ईश्वर के उध्दार (मुक़्ति) और उनसे प्रार्थना कर मिलने वाली ताकत के द्वारा हम आशा-पूर्वक पाप के ख़िलाफ़ लड़ सकते है।

पवित्र जीवन के लिए पाप के ख़िलाफ़ लड़ना जरूरी है

ईश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया। जब मनुष्य ने पाप किया तब उसका अस्तित्व ही बिगड़ गया और उसका ईश्वर एवं साथी मनुष्यों के साथ रिश्ते में बाधा आ गई। पाप मनुष्य को ईश्वर से अलग करता है, और उनको स्वार्थी व अकेलेपन के जीवन की ओर ले जाता है।

इसी कारण यीशु कठोर शब्दों में बताते हैं कि हम पापों से घृणा करें और उससे अलग हों।

यदि तेरा हाथ तुझे ठोकर खिलाए तो उसे काट कर फेंक दे; तेरे लिए यह भला है कि तू अंगहीन होकर जीवन में प्रवेश करें, इसकी अपेक्षा कि दो हाथ रहते हुए तू नरक में अर्थात उस न बुझने वाली आग में डाला जाए यदि तेरी आंख तुझे ठोकर खिलाएं, तो उसे निकाल फेंक। उत्तम यह है कि तू कान्हा होकर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करें अपेक्षा इसके कि दो आँखें रखते हुए नरक में डाला जाए। (मरकुस 9:43, 47)

यीशु ऐसे ही हमें धमकी देकर डराना नहीं चाहते बल्कि आत्मिक सच्चाई दिखाना चाहते हैंपाप लोगों को बदल देता है, फसाता है, लोगों को कठोर कर उनकी ईश्वर के प्रति अभिलाषा और अच्छाई की चाह को भी छीन लेता है। पाप लोगों को ईश्वर से अलग करता है। पौलुस इसके बारे में कुलुस्सियों 3:5 में बताते हैं:

इसलिए अपनी पार्थिव देह के अंगों को मृतक समझो, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, वासना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्ति-पूजा है।

हमारे विचारों और मनोभाव में पाप की शुरुआत होती है। और इसका प्रभाव हमारे कार्यो पर पड़ता है।

परंतु मैं तुमसे कहता  हूँ कि जो कोई किसी स्त्री को कामुकता से देखे वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका । (मत्ती 5 :28)

तुम सुन चुके हो कि पूर्वजों से कहा गया था, हत्या न करना और ‘जो हत्या करेगा, वह न्यायालय में दंड के योग्य ठहरेगा। पर मैं तुम से कहता हूं कि हर एक जो अपने भाई पर क्रोधित होगा वह न्यायालय में दण्ड के योग्य ठहरेगा; और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह सर्वोच्च न्यायालय में दोषी ठहरेगा; और जो कोई कहेगा, ‘अरे मूर्ख’ वह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा। (मत्ती 5 :21–22)

इसलिए जो कोई उचित काम करना जनता है और नहीं करता, उसके लिए यह पाप है। (याकूब 4 :17)

अनदेखे रहने के पाप को अक्सर लोग कठोरता से नहीं परखते जैसे बाईबल परखता है। अक्सर हमारी मुलाकात ऐसे लोगों से होती है, जो इस प्रकार के पापों को अनदेखा करते हैजैसे बाईबल न पढ़ना और मसीही भाई-बहनों को विश्वास में बढ़ने के लिए मदद न करना। वे लोग इन बातों को ज़रूरी ही नहीं समझते। ऐसे पाप साफ़-साफ़ यह दिखाते है कि ईश्वर के साथ उनका रिश्ता कितना कमज़ोर है। 

पाप के लिए कोई बहाना नहीं हो सकता ।

तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े जो मनुष्य के सहने से बाहर है। परमेश्वर तो सच्चा है जो तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में पड़ने नहीं देगा, परन्तु परीक्षा के साथ-साथ बचने का उपाय भी करेगा कि तुम उसे सह सको। (कुरिन्थियों 10 :13)

पुराने नियम में भी पापों पर विजय पाने को न केवल संभव माना जाता था बल्कि इसकी आज्ञा भी है।

यहोवा ने कैन से पूछा, “तुम क्रोधित क्यों हो? तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ क्यों दिखाई पड़ता है? अगर तुम अच्छे काम करोगे तो तुम मेरी दृष्टि में ठीक रहोगे। तब मैं तुम्हें अपनाऊँगा। लेकिन अगर तुम बुरे काम करोगे तो वह पाप तुम्हारे जीवन में रहेगा। तुम्हारे पाप तुम्हें अपने वश में रखना चाहेंगे लेकिन तुम को अपने पाप को अपने बस में रखना होगा।” (उत्पति 4 :6–7)

जो कोई अपने-आप को पाप से दूर रखने के लिए संघर्ष करता और अपने जीवन को ईश्वर के हाथों में सौंपता है, ईश्वर बड़े प्यार और दया से उनके करीब आते है। लेकिन ईश्वर का क्रोध उन लोगों पर बड़ा है जो अपने पापों को नाम देकर स्वीकार नहीं करते (मती 3 :7–8 ) जो अपनी कमज़ोरियों पर ज़ोर देकर बहाना बनाते है, क्योंकि,

देखो, यहोवा का हाथ ऐसा छोटा नहीं कि उद्धार न कर सके, न ही उसका कान ऐसा बहरा है कि सुन न सके। परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ही ने तुम्हें तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उसका मुख तुमसे छिप गया है जिस से वह नहीं सुनता। (यशायाह 59:1–2)

हम यह जानते है कि ईश्वर हर किसी से प्यार करते है। और जो उनके पास आना चाहे, उन्हें स्वीकार करते है। भले ही वो व्यक्ति कितनी ही बुरी तरह से अपने पापों के बोझ से दबा क्यों न हों। हम यह जानते है कि ईश्वर विश्वास योग्य है। और अपने पास आने वालों को कभी अस्वीकार नहीं करते। फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि पाप हमें ईश्वर से अलग करता है। इसलिए कोई व्यक्ति पाप के साथ न खेले और न उसे अनदेखा करे।

पापों से माफ़ी एक बड़ा उपहार है। इसकी बहुमूल्य कीमत को समझना ज़रूरी है। हम इसे कोई सस्ता-सौदा न समझे। क्योंकि यीशु ने अपनी जान देकर हमें हमारे पापों से बचाया है। इसलिए हमें उन लोगों की तरह जीना चाहिए जो पापों से बचाया गए हो न कि उनकी तरह जो पाप से लगाव रखते हो।

क्योंकि तुम जानते हो की उस निकम्मे चाल-चलन से जो तुम्हें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ, तुम्हारा छुटकारा सोने या चाँदी जैसी नाशवान वस्तुओं से नहीं, परन्तु निर्दोष और निष्कलंक मेमने, अर्थात मसीह के बहुमूल्य लहू के द्वारा हुआ है। (पतरस 1 :18–19)

पाप पर विजयी होना

भजनसंहिता 32:3–5 और नीतिवचन 28:13 बताते हैं कि पापों से छुटकारा और क्षमा पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है, कि हम अपने पापों का अंगीकार करे।

जो निज पापों पर पर्दा डालता है, वह तो कभी नहीं फूलता-फलता है किन्तु जो निज दोषों को स्वीकार करता और त्यागता है, वह दया पाता है। (नीतिवचन 28:13)

ईश्वर के सामने अपने पापों को मानना बहुत ज़रूरी और अच्छी बात हैं, परन्तु सच्चा पश्चाताप इसी में दिखाई देता है, कि हम अपने पापों को अन्य मनुष्यों के सामने भी प्रकाश में लाए। यदि हम सच्चाई में जीते है, तो हमें अपने मसीही भाई-बहनों के सामने भी सच्चाई में चलना ज़रूरी है।

यदि हम अपने पापों को मान लें तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। (यूहन्ना 1:9)

जब हम अपने जीवन की शुरुआत मसीह में करते है, तब यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि हम हर चीज़ जो हमें संसार से बांधती हो, उसे छोड़ कर अपने पापों को ज्योति में लाए। लेकिन अपने संपूर्ण मसीही जीवन के दौरान भी हम अपने पापों को अपने सह-मसीही भाई-बहनों के सामने अंगीकार करे; और एक-दूसरे के लिए प्रार्थना करे, कि हम पवित्र किये जाए। जैसे याकूब अपनी पत्री में लिखते है—याकूब 5:16। यह उन लोगों का काम नहीं जो विशेष-रीती से सिखाये गए हो—जैसे “धार्मिक सेवक”/“सलाहकार” जो विश्वासी जनों के पापों के अंगीकार की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले। कुछ “मसीही”/धार्मिक पंथो में ऐसे “धार्मिक सेवक” नियुक्त किए जाते है, जिन्हें फिर इन बातों को गुप्त रखने की शपथ लेनी पड़ती है। इस प्रकार की प्रथा का हम बाईबल में कोई आधार नहीं पाते। इसके विपरीत, ईश्वर की मौजूदगी कलीसिया में इस बात से साबित होती है कि सभी सह-विश्वासियो में गहरा भरोसा और सच्चाई से एक-दूसरे के सामने खड़े हो—उसी तरह जैसे ईश्वर के सामने खड़े हो। सिर्फ इसी तरह यह संभव हो पाएगा कि—भाई-बहन सचमुच एक-दूसरे की मदद कर सके, अपने पापों को एक-दूसरे के सामने खुलकर दिखाए, माफ़ी पाए, भाई-बहनों के द्वारा प्रार्थना में संभाले जाए, और प्रोत्साहन व प्रेमपूर्वक डांट के द्वारा एक-दूसरे के पवित्रिकरण के लिए सहायता कर पाए।

यूहन्ना 13:2–17 में यीशु ने अपने चेलों के पाँव धोए और ऐसा करके एक उदाहरण रखा कि इसी तरह हमें भी एक-दूसरे की सेवा करनी चाहिए। यीशु ने खुद को नम्र कर पापों की गुलामी में जी रहें लोगों के प्रति अपना बड़ा प्रेम दिखाया| हमें उनसे सीखना चाहिए कि कैसे एक-दूसरे के सामने छोटे (विनम्र) बनकर प्रेम में एक-दूसरे को संभाले| इस के द्वारा हम अपने पवित्र जीवन में बढ़ेंगे और दुसरों को भी बढ़ने में मदद कर सकेंगे। एक-दूसरे की सेवा और एक-दूसरे के उद्धार की देखभाल करना इसे हम कभी अलग नहीं कर सकते। हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हमारे भाई विश्वास में बढ़े और परिपक्व बनें (उन्नति करे) कि कोई भी पाप उन्हें ईश्वर के करीब रहने में बाधा न बने।

ईश्वर हर एक मसीही को इस के योग्य बनाते है कि वे दूसरों को सहायता दे सके। ताकि पूरा शरीर एक पवित्र मंदिर बन जाए (इफिसियों 2:21)। इसलिए एक-दूसरे की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी, प्रभु कलीसिया के हर सदस्य को देते है। इसलिए:

सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखो, और उस पवित्रता के खोजी बनो, जिसके बिना प्रभु को कोई भी नहीं देख पाएगा।
(इब्रानियों 12:14)

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