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“भाइयों, हम क्या करें?”
कलीसिया के जीवन का आरंभ
प्रेरितों 2:32–47 में हम यह पद पाते हैं। इसमें यहूदियों के पर्व पेन्तिकोस्त के दिन (प्रेरितों 2:1–13), पतरस द्वारा यरूशलेम के निवासियों को दिए गए भाषण का आखरी भाग हैं, और उसे सुनकर विश्वास करने वालों की प्रतिक्रिया भी :–
“… इसलिये समूचा इस्राएल निश्चयपूर्वक जान ले कि परमेश्वर ने इस यीशु को जिसे तुमने क्रूस पर चढ़ा दिया था प्रभु और मसीह दोनों ही ठहराया था! लोगों ने जब यह सुना तो वे व्याकुल हो उठे और पतरस तथा अन्य प्रेरितों से कहा, “तो बंधुओं, हमें क्या करना चाहिए?” पतरस ने उनसे कहा, “मन फिराओं और अपने पापों की क्षमा पाने के लिये तुममें से हर एक को यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा लेना चाहिये। फिर तुम पवित्र आत्मा का उपहार पा जाओगे। क्योंकि यह प्रतिज्ञा तुम्हारे लिये, तुम्हारी संतानों के लिए और उन सबके लिये है जो बहुत दूर स्थित हैं। यह प्रतिज्ञा उन सबके लिए है जिन्हें मारा प्रभु परमेश्वर को अपने पास बुलाता है।” और बहुत से वचनों द्वारा उसने उन्हें चेतावनी दी और आग्रह के साथ उनसे कहा, “इस कुटिल पीढ़ी से अपने आपको बचाये रखो।” सो जिन्होंने उसके संदेश को ग्रहण किया, उन्हें बपतिस्मा दिया गया। इस प्रकार उस दिन उनके समूह में कोई तीन हज़ार व्यक्ति और जुड़ गये। उन्होंने प्रेरितों के उपदेश, संगत, रोटी के तोड़ने और प्रार्थनाओं के प्रति अपने को समर्पित कर दिया। हर व्यक्ति पर भय मिश्रित विस्मय का भाव छाया रहा और प्रेरितों द्वारा आश्चर्य कर्म और चिन्ह प्रकट किये जाते रहे। सभी विश्वासी एक साथ रहते थे और उनके पास जो कुछ था, उसे वे सब आपस में बाँट लेते थे। उन्होंने अपनी सभी वस्तुएँ और सम्पत्ति बेच डाली और जिस किसी को आवश्यकता थी, उन सब में उसे बाँट दिया। मन्दिर में एक समूह के रूप में वे हर दिन मिलते-जुलते रहे। वे अपने घरों में रोटी को विभाजित करते और उदार मन से आनन्द के साथ, मिल-जुलकर खाते। सभी लोगों की सद्भावनाओं का आनन्द लेते हुए वे प्रभु की स्तुति करते, और प्रतिदिन परमेश्वर, जिन्हें उद्धार मिल जाता, उन्हें उनके दल में और जोड़ देता।” (प्रेरितों 2:36–47)
यीशु की तरह पतरस ने भी पापों से मन फ़िराने का बुलावा दिया था। ईश्वर के सन्तान के रूप में नया जीवन प्राप्त करने की एक शर्त है – अपने पुराने पापमय जीवन को त्यागना। जो कोई ईश्वर का होना चाहे, वह अपने पापों के साथ ज्योति में आए; क्योंकि पाप उसे ईश्वर और अन्य लोगों से दूर करता है।
हमने यीशु मसीह से जो सुसमाचार सुना है, वह यह है और इसे ही हम तुम्हें सुना रहे हैं: परमेश्वर प्रकाश है और उसमें लेशमात्र भी अंधकार नहीं है। यदि हम कहें कि हम उसके साझी हैं और पाप के अन्धकारपूर्ण जीवन को जीते रहे तो हम झूठ बोल रहे हैं और सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। किन्तु यदि हम अब प्रकाश में आगे बढ़ते हैं क्योंकि प्रकाश में ही परमेश्वर है-तो हम विश्वासी के रूप में एक दूसरे के सहभागी हैं, और परमेश्वर के पुत्र यीशु का लहू हमें सभी पापों से शुद्ध कर देता है।(1 यूहन्ना 1:5–7)
सच्चे दिल से ही मनुष्य पवित्र ईश्वर के पास आ सकता है। अगर कोई जन ईश्वर के सामने अपने पापों को “खोलकर” दिखाए तो ईश्वर उसे “ढक” देते है। ईश्वर उसे माफ़ करेंगे और उस व्यक्ति से एक नया मनुष्य उत्पन्न करेंगे; जो ईश्वर के आत्मा की सुने। मन फ़िराने वालों को ईश्वर अपने आत्मा से प्यार भरी ज़िन्दगी जीने के लिए अगुवाई करेंगे। यीशु के शिष्यों ने उनसे सीखा था कि प्यार करने का मतलब उन्हें अपनी ज़िन्दगी अर्पित करनी होगी; इसी समर्पण पर पहली कलीसिया के विश्वासियों की ज़िन्दगी बनी थी। ईश्वर अपने बच्चों के दिलों में जो प्रेम उंडेलते हैं वो उन्हें ख़ुद के लिए जीने नहीं देता।
पौलुस लिखते हैं :–
क्योंकि मसीह का प्रेम हमें विवश करता है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब एक सबके लिए मरा, तो सब मर गए। और वह सब के लिए मरा कि वे जो जीवित हैं आगे को अपने लिए न जीएं परन्तु उसके लिए जीएं, जो उनके लिए मरा और फ़िर जी उठा। (2 कुरिंथियों 5:14–15)
यीशु की तरह ही, पहले मसीही ख़ुद के लिए जीना नहीं चाहते थे । इस तरह प्यार करने से रोकने वाली हरेक चीज़ के विरुद्ध वे लड़े, अर्थात्, घर, खेत, परिवार, भविष्य की योजनाएं – इन सब से उन्होंने स्वतंत्र होना चाहा। ईश्वर की सेवा और दूसरें लोगों के उद्धार के लिए, उन्होंने हर एक बाधा को त्याग दिया। यीशु ने उन्हें सिखाया था की सेवा करने का और कोई रास्ता नहीं है। बल्कि इसके साथ एक वादा भी है :–
फिर पतरस उससे कहने लगा, “देख, हम सब कुछ त्याग कर तेरे पीछे हो लिये हैं।” यीशु ने कहा, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरे लिये और सुसमाचार के लिये घर, भाईयों, बहनों, माँ, बाप, बच्चों, खेत, सब कुछ को छोड़ देगा। और जो इस युग में घरों, भाइयों, बहनों, माताओं, बच्चों और खेतों को सौ गुना अधिक करके नहीं पायेगा-किन्तु यातना के साथ और आने वाले युग में अनन्त जीवन। (मरकुस 10:28–30)
अपने आप का इनकार करने और स्वयं-निर्धारित जीवन को छोडने के लिए तत्पर ये मसीही, ईश्वर के राज्य के लिए स्वतंत्र थे । वे अपना समय प्रतिदिन मंदिर के आंगन में बिताते थे जहाँ वे दूसरे यहूदियों से बात कर, यीशु के मसीह होने की गवाही देते थे । वे एक-दूसरें के घरों में प्रतिदिन संगति रखते थे, और उनकी छोटी सभाअों में कोई भी अनजाना (गुमनाम) नहीं था। उनके बीच कोई कार्यक्रम या समारोह नहीं हुआ करता था, जिन में बिना किसी ज़िम्मेदारी के भाग लिया जा सके। उन्होंने वास्तविकता में एक-दूसरें के भाई-बहन, माता-पिता या बच्चे बनने को अनुभव किया, भले ही पहले वे एक-दूसरें से दूर, अलग, या फिर शत्रु ही क्यों न रहे हो । कलीसिया सभी के लिए खुली थी, अमीर या गरीब, पुरुष या स्त्री, यहूदी या अन्य-जाती, गुलाम या आज़ाद, बूढ़े या जवान । उनकी संगति, प्रेरितों से मिले यीशु की शिक्षा और जीवन पर आधारित थी। जैसे यीशु ने लोगों की सेवा की, उन्होंने भी एक-दूसरे की सेवा, प्रोत्साहन, आश्वासन और सुधार के लिए सहायता की । उन्होंने जितना हो सके एक-दूसरे के साथ समय बिताया। और इसलिए एक-दूसरे को भली-भाँति जानते भी थे। वे अपने भाई-बहनों की जरूरतों को समझते थे । खोखले और चंद-रोज़ के रिश्ते जो आज-कल की ‘कलीसियाओं’ में पाये जाते हैं, उसमे हम सच्चे प्यार को लागू नहीं कर सकते । क्योंकि लोग अपना व्यक्तिगत जीवन दूसरों को दिखाना नहीं चाहते।
पहले मसीही अपनी ख़ुशियाँ एवं दर्द बाँटते थे, अपनी कमज़ोरियों और पापों को एक-दूसरे के सामने अंगीकार (स्वीकार) करते, और विश्वास में बने रहने के लिए मदद करते थे । वे एक-दूसरे को ईश्वर को भाने वाला पवित्र जीवन जीने में सहायता करते थे ताकि सभी, विश्वास के लक्ष्य अर्थात्, ईश्वर के समक्ष अनंत ख़ुशी तक जा पहुँचे । इब्रानियों 3:12–14 दिखाता है कि भाईयों को प्रतिदिन प्रोत्साहित करना कितना आवश्यक है।
हे भाइयों, देखते रहो कहीं तुममें से किसी के मन में पाप और अविश्वास न समा जाये जो तुम्हें सजीव परमेश्वर से ही दूर भटका दे। जब तक यह “आज” का दिन कहलाता है, तुम प्रतिदिन परस्पर एक दूसरे का धीरज बँधाते रहो ताकि तुममें से कोई भी पाप के छलावे में पड़कर जड़ न बन जाये। यदि हम अंत तक दृढ़ता के साथ अपने प्रारम्भ के विश्वास को थामे रहते हैं तो हम मसीह के भागीदार बन जाते हैं।
अपने प्यार, भक्ति और एकता के द्वारा वे जगत की ज्योति बन गए, जैसा यीशु ने कहा था; जिससे अन्य लोग भी चकित हो गए। फिर भी किसी और को उनमें जा मिलने की हिम्मत न हुई, सिवाय उनके जो उन्हीं की तरह पवित्र जीवन जीना चाहते थे (प्रेरित 5:13,14)।
उद्धारकर्ता यीशु और उसके वचनों की सच्चाई पर विश्वास के द्वारा वे एक-जुट हो सके। लेकिन इसका मतलब यह भी था कि यदि कोई अपनी इच्छानुसार चलना चाहे या निस्स्वार्थ होकर प्यार न करे, तो यह एकता टूट जाएगी। हनन्या और सफ़ीरा का उदाहरण दिखाता है कि अगर मसीही सच्चे न हो तो ये कैसे विनाश की ओर ले जाता है (प्रेरित 5:1–11)। दोनों (पति-पत्नी) ने अपनी ज़मीन तो बेच दी, लेकिन उससे मिले धन को बाँटने में बेईमानी की, और प्रेरितों से झूठ बोले। वे अपने लिए धन का कुछ भाग रख सकते थे। अगर उन्हें सचमुच उसकी आवश्यकता थी, तो इस योजना को छिपाने की ज़रुरत न होती। हर बात को खुल कर और भरोसे से वे बता सकते थे।
झूठे लोग ईश्वर की कलीसिया में नहीं रह सकते। मिल-जुल कर ईश्वर की सेवा करने के लिए आपस में भरोसा आवश्यक है; और अगर कोई सच्चे मन से ईश्वर की इच्छा न ढूँढे, तो यह विश्वास टूट जाएगा। और ये बात हमें उन पहले मसीहियों के जीवन के अगले पहलू पर लाती है: संपत्ति में संगति।
विश्वासियों का सब कुछ साझे का था –
संपत्ति में संगति
ऊपर दिए गए मरकुस 10:28–30 में यीशु अपने शिष्यों को घर और ज़मीन मिलने का भी वादा करते है। यह वादा मसीहियों ने पूरा भी किया क्योंकि वे अपने सामान को अपनी निजी संपत्ति नहीं मानते थे। उनका सब कुछ साझे का था और अपनी चीजों को वे अपने विश्वासी भाई-बहनों के साथ बांटते थे। किसी ने उनको ऐसा करने का निर्देश नहीं दिया। ईश्वर के सामने, अपने विवेक के अनुसार उन्हें अपनी संपत्ति का उपयोग कैसे करना चाहिए, इसे तय करने के लिए वे पूरी तरह आज़ाद थे। यदि बाहर से कोई और, इन्हें परखना चाहे, तो संपत्ति में संगति सचमुच मसीहियों के विश्वास, एकता और गहरे प्यार का सबसे स्पष्ट चिन्ह था। ये दुनिया में देखने को नहीं मिलेगा। क्योंकि वे एक नई सृष्टि बन चुके है, उन्हें अपनी भौतिक संपत्ति से लगाव न था। अविनाशी (अनंत काल की) चीजें ही अब उनका सबसे बहुमूल्य धन था, और इसलिए ये स्वाभाविक था कि वे अपने नश्वर धन को भी ईश्वर के राज्य के लिए अर्पित कर दे। उन्होंने किसी साझे धन-पेटी में सब कुछ नहीं डाला बल्कि जितना उनसे हो सके और एक-दूसरे की जरूरत के अनुसार बांटते थे। ये सिर्फ़ प्रेरितों के काम दूसरे अध्याय में ही नहीं, 4:32–35 में भी लिखा है :-
विश्वासियों का यह समूचा दल एक मन और एक तन था। कोई भी यह नहीं कहता था कि उसकी कोई भी वस्तु उसकी अपनी है। उनके पास जो कुछ होता, उस सब कुछ को वे बाँट लेते थे। और वे प्रेरित समूची शक्ति के साथ प्रभु यीशु के फिर से जी उठने की साक्षी दिया करते थे। परमेश्वर का महान वरदान उन सब पर बना रहता। उस दल में से किसी को भी कोई कमी नहीं थी। क्योंकि जिस किसी के पास खेत या घर होते, वे उन्हें बेच दिया करते थे और उससे जो धन मिलता, उसे लाकर प्रेरितों के चरणों में रख देते और जिसको जितनी आवश्यकता होती, उसे उतना धन दे दिया जाता था।
मसीही केवल बातों (शब्दों) से नहीं बल्कि कार्य और सत्य द्वारा प्रेम करते है :
मसीह ने हमारे लिए अपना जीवन त्याग दिया। इसी से हम जानते हैं कि प्रेम क्या है। हमें भी अपने भाईयों के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देने चाहिए। सो जिसके पास भौतिक वैभव है, और जो अपने भाई को अभावग्रस्त देखकर भी उस पर दया नहीं करता, उसमें परमेश्वर का प्रेम है-यह कैसे कहा जा सकता है? हे प्यारे बच्चों, हमारा प्रेम केवल शब्दों और बातों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि वह कर्ममय और सच्चा होना चाहिए। (1 यूहन्ना 3:16–18)
संपत्ति में सहभागिता का ये मतलब बिलकुल नहीं है कि मसीही एक-दूसरें के चीज़ों पर निर्भर हो। हरेक जन ख़ुद परिश्रम करके कमाए और सादा जीवन जीये ताकि दूसरे जरूरत-मंदो को दे सके। जिस तरह पौलुस थिस्सलुनीकियों को लिखते है :–
इसलिए हम जब तुम्हारे साथ थे, हमने तुम्हें यह आदेश दिया था: “यदि कोई काम न करना चाहे तो वह खाना भी न खाए।” हमें ऐसा बताया गया है कि तुम्हारे बीच कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसा जीवन जीते हैं जो उनके अनुकूल नहीं है। वे कोई काम नहीं करते, दूसरों की बातों में टाँग अड़ाते हुए इधर-उधर घूमते फिरते हैं। ऐसे लोगों को हम यीशु मसीह के नाम पर समझाते हुए आदेश देते हैं कि वे शांति के साथ अपना काम करें और अपनी कमाई का ही खाना खायें। (2 थिस्सलुनीकियों 3:10–12)
आज-कल विश्वासी भाइयों के प्रति प्रेम के बदले अक्सर लोग धार्मिक संस्कार या सभाअों में उपस्थिति को ज़्यादा महत्व देते है। ऐसे में स्वाभाविक है कि लोग अपनी संपत्ति भी बाँटने को तैयार नहीं होंगें। धर्म-चंदा, जिसका बाईबिल में कोई उल्लेख नहीं, या कमाई का दसवाँ भाग देना, जो नामधारी विश्वासी-कलीसिया में अक्सर पाई जाती है, इस स्थिति को बेहतर नहीं बनाती; क्योंकि हर व्यक्ति अपनी निजी संपत्ति से सिर्फ़ थोड़ा भाग ही देता है। ये कोई चौंकाने वाली बात नहीं कि आज संपत्ति में सहभागिता न होने को ‘कलीसियाओं’ के अध्यक्ष (अगुवें) कई तर्क देकर नकार देते है। कई कलीसिया के सदस्य ऐसे तर्क पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें अपने भौतिक वस्तुओं के प्रति स्वार्थ को छिपाने का कारण मिल जाता है।
जैसे हमने ऊपर बताया, दसवाँ भाग (10%) देने की प्रथा कई ‘मसीही’ वर्गो में प्रचलित है, और कई लोग सोचते है कि ये बाईबिल से लिया गया है। हम इसके बारे में बाईबिल में पढ़ते तो है, लेकिन एक मसीही प्रथा के तौर पर नहीं। पुराने नियम में, ये एक चंदा था जो याजकों और लेवियों की सहायता और यहूदी-मंदिर में चढ़ाएँ जाने वाले बलिदानों का दाम चुकाने के लिए था। इसके अलावा हर तीसरे वर्ष व्यवस्थाविवरण 14:28–29 के अनुसार, प्रजा का दसवाँ भाग पूरे राज्य के गरीबों में बाँटा जाता था। लेकिन नए नियम में मसीहियों के बीच ऐसी कोई प्रथा नहीं थी। इसके बदले हम पाते है कि उन्होंने अपना सब कुछ बाँट डाला। ये बात प्रेरित 4:32 – “वे सब एक चित्त और मन के थे” – के अनुसार ही है। ऐसा महान् भरोसा, जो परिवार में भी देखने को नहीं मिलता, भला धन के मामले में क्यों सीमित हो? वे एक दूसरे पर इतना भरोसा रख सके, क्योंकि वे एक-दूसरे का जीवन अच्छी तरह जानते थे। उन्हें पता था कि उनके भाई-बहन ईश्वर की इच्छा कितनी सच्चाई से ढूँढ़ते है। और इसी आधार पर वे अपना रूपया और सामान एक दूसरे को सौंप सके; यह जानकर कि इसका उपयोग ईश्वर के उद्देश्य के लिए किया जाएगा।
भेड़ियों के बीच भेड़
शुरूआत में तो यरूशलेम के निवासियों ने मसीहियों को बड़ा सम्मान दिया। लेकिन ज़्यादा समय नहीं लगा, कि यीशु की भविष्यद्वाणी पूरी हो :–
“सावधान! मैं तुम्हें ऐसे ही बाहर भेज रहा हूँ जैसे भेड़ों को भेड़ियों के बीच में भेजा जाये। सो साँपों की तरह चतुर और कबूतरों के समान भोले बनो। लोगों से सावधान रहना क्योंकि वे तुम्हें बंदी बनाकर यहूदी पंचायतों को सौंप देंगे और वे तुम्हें अपने आराधनालयों में कोड़ों से पिटवायेंगे। तुम्हें शासकों और राजाओं के सामने पेश किया जायेगा, क्योंकि तुम मेरे अनुयायी हो। तुम्हें अवसर दिया जायेगा कि तुम उनकी और ग़ैर यहूदियों को मेरे बारे में गवाही दो। जब वे तुम्हें पकड़े तो चिंता मत करना कि, तुम्हें क्या कहना है और कैसे कहना है। क्योंकि उस समय तुम्हें बता दिया जायेगा कि तुम्हें क्या बोलना है। याद रखो बोलने वाले तुम नहीं हो, बल्कि तुम्हारे परम पिता की आत्मा तुम्हारे भीतर बोलेगी। “भाई अपने भाईयों को पकड़वा कर मरवा डालेंगे, माता-पिता अपने बच्चों को पकड़वायेंगे और बच्चे अपने माँ-बाप के विरुद्ध हो जायेंगे। वे उन्हें मरवा डालेंगे। मेरे नाम के कारण लोग तुमसे घृणा करेंगे किन्तु जो अंत तक टिका रहेगा उसी का उद्धार होगा। (मत्ती 10:16–22)
आरंभ से ही यहूदी धर्म के अगुवे इस नए “पंथ” को कुचलने की कोशिश में थे, ताकि ये फ़ैले नहीं। वे यहूदी राज्य पर अपने धार्मिक प्रभाव और लोगों के बीच अपने सम्मान को खोने से डरते थे, जिसके कारण उन्होंने अपने बारे में सच्चाई सुनना न चाहा। इसलिए उन्होंने प्रेरितों को लोगों से बात करने से रोका। उन्हें कोड़े मारे और जेलखाने में डाल दिया। लेकिन फिर भी प्रेरित प्रतिदिन मंदिर में और घर-घर में शिक्षा देने और यह उपदेश देने में लगे रहे कि यीशु ही मसीह है (प्रेरित 5:42)। स्तिफ़नुस द्वारा यहूदी महासभा के सदस्यों को, ईश्वर के धर्मी सेवक (यीशु) की हत्या का बोध कराने पर और यह दिखाने पर कि वे किस तरह ईश्वर का विरोध कर रहे थे, उन्होंने उसे पथराव कर मार डाला; और इस तरह वह अपने प्रभु के उदाहरण का अनुकरण करते हुए पहला शहीद हुआ। पौलुस के जीवन का विवरण भी दर्शाता है, कि उसे उसके सुसमाचार के कार्यों के कारण कितना सताव हुआ; अक्सर यहूदियों से, पर गैर-यहूदियों (अन्य-जातियों) से भी।
मसीही संसार के अनुरूप चलने वाले लोग नहीं थे। ईश्वर के घराने के होते हुए, वे सुसमाचार के प्रति अपने कर्त्तव्य से अवगत थे, और इसलिए उस विश्वास को थामे रहे; अविश्वासियों के सामने भी, जो पश्चात्ताप की बुलाहट का विरोध करते थे। ये मसीही अपने जीवन के द्वारा, सभी मनुष्यों के लिए ईश्वर की इच्छा दिखाना चाहते थे। पौलुस इस कुटिल और भ्रष्ट पीढ़ी के बीच ज्योति बनकर चमकने के लिए प्रोत्साहित करते है (फिलिप्पियों 2:15)। दुनिया के बारे में वे यही दृष्टिकोण रखते थे और जानते थे कि संसार से मित्रता ईश्वर से शत्रुता है (याकूब 4:4)। इसलिए उनके सिद्धांत और कार्य दोनों ही, अपने इच्छानुसार जीने वाले, समाज के लोगों से पूरी तरह अलग थे। जिन लोगों ने एेसे जीवन को ईश्वर का कार्य न माना, वे इसे व्यक्तिगत आरोप मानकर कभी-कभी यीशु के सुसमाचार और इसे सुनाने वालों के खिलाफ़ हिंसक भी हो गए।
दूसरे और तीसरे शताब्दी में, यीशु पर विश्वास घोषित करने वालों को समाज में बाहरी लोगों की तरह देखा जाता था। मसीही हर सांसारिक सुख-विलास से, जिसमें अधिकतम लोग मज़े लेते थे, पूरी तरह अलग हुआ करते थे। वे सार्वजनिक त्यौहार और धार्मिक रीति-रिवाज़ो में भाग नहीं लेते थे; बल्कि लोगों से अपने पापमय जीवन छोड़ पश्चात्ताप करने का अनुरोध करते थे। ऐसा करते हुए उन्होंने दुश्मनी मोल ली। उनके बारे में गन्दे अफ़वाह फैलाए गए। रोमी साम्राज्य द्वारा हुए सताव के दौरान कई मसीहियों को बिना सुबूत के ही दोषी ठहरा दिया गया।
हमारे लिए इसका क्या मतलब है ?
पहले मसीहियों की जीवन-शैली उन्होंने स्वयं अपने लिए निर्धारित नहीं की थी। वे मिल-बाँटकर जीते और एक-दूसरे को अपना सबकुछ देते थे : दैनिक-जीवन, अतिरिक्त समय, वरदान और काबिलियत (योग्यताएँ), ख़ुशी, दर्द, पैसे और सम्पत्ति – हरेक चीज़ जिससे जीवन बनता है। हर बात में वे एक-दूसरे को ईश्वर के प्रति विश्वास योग्य रहने के लिए मदद करना चाहते थे। यीशु के शिष्य होने के नाते, वे उसकी भक्ति (निष्ठा) का अनुकरण करना चाहते थे, जैसे यूहन्ना प्रेरित लिखते है :–
मसीह ने हमारे लिए अपना जीवन त्याग दिया। इसी से हम जानते हैं कि प्रेम क्या है? हमें भी अपने भाईयों के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देने चाहिए। (1 यूहन्ना 3:16)
एक-दूसरे के प्रति प्रेम, जैसा कि भाई-बहनों के बीच सामान्य होता है – यही उनके ईश्वर के प्रति प्रेम को दिखाता था। यूहन्ना स्पष्ट लिखते है :–
हम प्रेम करते हैं क्योंकि पहले परमेश्वर ने हमें प्रेम किया है। यदि कोई कहता है, “मैं परमेश्वर को प्रेम करता हूँ,” और अपने भाई से घृणा करता है तो वह झूठा है। क्योंकि अपने उस भाई को, जिसे उसने देखा है, जब वह प्रेम नहीं करता, तो परमेश्वर को जिसे उसने देखा ही नहीं है, वह प्रेम नहीं कर सकता। मसीह से हमें यह आदेश मिला है। वह जो परमेश्वर को प्रेम करता है, उसे अपने भाई से भी प्रेम करना चाहिए। (1 यूहन्ना 4:19–21)
हरेक जो यीशु का अनुकरण करना अर्थात् मसीही बनना चाहे, उस पर ये बात लागू होती है। “सिर्फ़ मेरे-और-ईश्वर के बीच रिश्ते” को और “धार्मिक सभाओं में जाने” को अगर कोई मसीही जीवन समझे, तो वह ख़ुद को धोखा देता है; और इसके घोर परिणाम होंगे। मसीह की दुल्हन कलीसिया है, न कि एक अकेला मसीही। कलीसिया को उसका शरीर भी कहा गया है। वही सिर है, जिससे सारे अंगों को जुड़ा रहना आवश्यक है – सिर, जो उनकी सेवा में अगुवाई करता है।
हम अपने जीवन के हर क्षेत्र में मसीहियों के उदाहरण का पालन करना चाहेंगे, और हम आपको भी ये साथ में करने के लिए आंमत्रित करते है। जो कोई गंभीरता से यीशु के पीछे चलना चाहे, हम उनसे मिलना चाहेंगे, चाहे वे कही भी क्यों न हो। हम सिर्फ़ यीशु के वचनों से ही नहीं बल्कि अपने अनुभव से भी जानते है, कि ऐसा चाहने वाले ज़्यादा नहीं। मानव-जाति का इतिहास यही बताता है कि अधिकतर लोग ईश्वर की राहों पर नहीं चलना चाहते।
हम अपने साजे-जीवन से ईश्वर के सामर्थ्य की साक्षी देना चाहते है कि वे जीवन बदल सकते हैं। हम आपको भी प्रोत्साहित करना चाहेंगे कि अल्प विश्वास के न रहे कि आज ऐसा जीना संभव है कि नहीं। ऐसा जीवन एक बड़ा आशीष है। यही नहीं – नम्र और निस्स्वार्थी होना, अपने आप का इंकार (त्याग) और विश्वास में लगनशील रहना , सौम्यता और धीरज धरना, दूसरों को अपने से बढ़कर मानना, अपने लाभ को छोड़ दूसरों की सर्वोत्तम भलाई चाहना - ऐसे सच्चे नैतिक गुणों में बढ़ना भी बहुत आवश्यक है । इस मार्ग पर, यीशु के साथ चलते हुए हम अनुभव कर पाएँगे कि कैसे वो हमें ये सब करने में योग्य बनाएँगे। इसके अलावा हम और भी यीशु के भक्ति और हमारे प्रति उनके प्रेम को समझ पाएँगे। जो हमें अधिकाधिक उनको धन्यवाद देने और स्तुति करने की प्रेरणा देता है।
हम मसीही है जिन्होंने यीशु के पीछे चलने का निर्णय लिया है। बाईबिल में वर्णित पहले मसीहियों के जीवन में हम व्यावहारिक तौर पर देखते है कि आज हमें कैसे यीशु का अनुकरण करना चाहिए। हम किसी मसीही वर्ग या धार्मिक संस्था से नहीं, न ये हमारा इरादा था कि कुछ नया शुरू करे। बल्कि सिर्फ़ अपने बाईबिल के भाइयों के अच्छे उदाहरण का अनुकरण करे। विश्वास हमारे लिए वास्तविकता हैं, जो जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है।
हे प्यारे मित्रों, हम परस्पर प्रेम करें। क्योंकि प्रेम परमेश्वर से मिलता है और हर कोई जो प्रेम करता है, वह परमेश्वर की सन्तान बन गया है और परमेश्वर को जानता है। वह जो प्रेम नहीं करता है, परमेश्वर को नहीं जाना पाया है। क्योंकि परमेश्वर ही प्रेम है। परमेश्वर ने अपना प्रेम इस प्रकार दर्शाया है: उसने अपने एकमात्र पुत्र को इस संसार में भेजा जिससे कि हम उसके पुत्र के द्वारा जीवन प्राप्त कर सकें। सच्चा प्रेम इसमें नहीं है कि हमने परमेश्वर से प्रेम किया है, बल्कि इसमें है कि एक ऐसे बलिदान के रूप में जो हमारे पापों को धारण कर लेता है, उसने अपने पुत्र को भेज कर हमारे प्रति अपना प्रेम दर्शाया है। हे प्रिय मित्रो, यदि परमेश्वर ने इस प्रकार हम पर अपना प्रेम दिखाया है तो हमें भी एक दूसरे से प्रेम करना चाहिए। परमेश्वर को कभी किसी ने नहीं देखा है किन्तु यदि हम आपस में प्रेम करते हैं तो परमेश्वर हममें निवास करता है और उसका प्रेम हमारे भीतर सम्पूर्ण हो जाता है। (1 यूहन्ना 4:7–12)